पूछूँगा विधाता से मैं, कि ये कैसा मुकद्दर बना दिया,
न बचा था ठौर कोई, जो आँखों को समंदर बना दिया !
सारी ज़िंदगी गुज़र गयी यूं ही अपनों के आगे झुकते,
क्या बिगाड़ा था उसका, जो इतना कमतर बना दिया !
दर्द औरों का देख कर खुशियां भुला दीं मैंने अपनी,
मगर मेरे लिए हर #दिल, उसने क्यों पत्थर बना दिया !
जिसे भी समझा कुछ अपना चला गया देकर धोखा,
क्यों ज़िन्दगी को उसने, बोझिल इस कदर बना दिया !
अगर और भी सितम थे झोली में उसकी वो भी दे देता,
भुगत लेता उनको भी, अब तो दिल बेअसर बना दिया !
नहीं हूँ मैं अकेला जाने कितनों के ये जज़्बात हैं यारो,
कि उसने #ज़िंदगी तो दे दी, पर जीना बदतर बना दिया !

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