ये अजीब सा ही, मौसम हो चला है आज कल ,
आदमी का धीरज, ख़त्म हो चला है आज कल !
दिल में तो ख्वाहिशें सजी हैं सब कुछ पाने की,
मगर आदमी क्यों, बेदम हो चला है आज कल !
जिधर भी देखते हैं उधर सियासत का खेल है,
फिरकापरस्ती का, मौसम हो चला है आज कल !
सियासत के आँगन में तो हो सकता है कुछ भी,
जाने क्यों आदमी, बेशरम हो चला है आज कल !
वो भी दिन थे कि लोग मरते थे एक दूजे के लिए,
मगर वो जमाना अब, ख़त्म हो चला है आज कल !

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