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नेताओं की अपनी ही भूख मिटती नहीं,
जनता की भूख क्या मिटायेंगे,
अपना ही पेट बढ़ाते हैं,
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भेड़ों का इक झुण्ड है
जनता, जिसकी अपनी कोई डगर नहीं
आगे की भेड़ किधर जाती है, इसकी उनको कोई खबर नहीं.
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वो तो मरने को भर्ती होते हैं, हमको क्या लेना देना
हम नेता चाहे देश को लूटें,
जनता को क्या लेना देना
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आलू प्याज छाटने में हम, कितना वक्त लगाते हैं
सब्जी मॅंडी में घूम घूम कर, छाट के सब्जी लाते हैं
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वो हमारी जान भी लेलें तो कोई बात नहीं,
अगर हम मुंह खोलें तो हंगामा
वो झूठ की महफिल सजाएं तो कोई बात नहीं,
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फूलों की महक या कांटों की खरास लिखूँ
या अपनों से बिगड़ते रिश्तों की खटास लिखूँ
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आज कल हर गली में वोटों के भिखारी निकल पड़े हैं
कुटिल राजनीति के मझे हुए खिलाडी निकल पड़े हैं
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नेताओं को
जनता में, बस वोट नज़र आती है,
जनता तो पागल है, बस ये सोच नज़र आती है!
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जनता जिसे चुनती है वो संसद में बैठते हैं
और भगवान जिसे चुनते हैं वो सत्संग में बैठते हैं।
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ऐसी विदाई कभी नही देखी
दूल्हा-दुल्हन मंडप में रो रहे हैं,
जनता कतार में रो रही है,
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