हम तो अपनों को, अपना संसार समझ बैठे,
उन्हें ज़िन्दगी की नैया का, पतवार समझ बैठे !
रफ़्ता रफ़्ता फंसते गए हम उनके कुचक्र में,
हम तो उसी को ख़ुशी का, बाज़ार समझ बैठे !
कैसी हैं फितरतें उनकी न समझ पाये हम,
ज़ख्म देने पर भी उनका, इख़्तियार समझ बैठे !
पागल थे कि न समझे मन की गांठों को हम,
उनकी अदा को उल्फ़त का, इज़हार समझ बैठे !
भूल ही गए कि औकात बदल गयी है दोस्तो,
हम तो यूं ही उन पे, अपना अधिकार समझ बैठे !
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