न जाने कितनों को, बदलते देखा है हमने
कितने रिश्तों को, बिखरते देखा है हमने

यहाँ क़ाबिले यक़ीं तो कोई भी न रहा यारो,
बहुतों की वफ़ा को, पिघलते देखा है हमने

न करो बात उल्फ़त की क्या रखा है उसमें,
प्यार के परिंदों को, फिसलते देखा है हमने

झूठी तसल्लियों से कभी दिल नहीं बहलते,
गैरों के साथ उनको, थिरकते देखा है हमने

ये बेरहम दुनिया न समझती दुःख किसी के,
जनाज़े में लोगों को, चहकते देखा है हमने

शर्म आती है हमको जब देखते हैं ऐसे सितम,
यतीमखाने में माँ को, बिलखते देखा है हमने

कभी बुलंदियों पे थे जिनके मुकद्दर के सितारे,
जमीं पे दरबदर उनको, भटकते देखा है हमने

न करता कोई भी मोहब्बत अब किसी से,
हर दिल में नफरतों को, भड़कते देखा है हमने...

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