मिलना तो चाहे दिल मगर, इन दूरियों का क्या करें,
हैं ज़िगर में पैबस्त जो, उन मज़बूरियों का क्या करें !
मैं तोड़ डालूं ये बेड़ियाँ ये चाहत है मेरे कदमों की,
पर बेरूख़ी से भरी उनकी, तिजोरियों का क्या करें !
मेरा दर्दे दिल न समझे कोई तो शिकवा नहीं मगर,
बदनाम हम जिनसे हुए, उन मश्हूरियों का क्या करें !
इन फासलों को ले कर कभी होते नहीं रिश्ते फ़ना
पर बनतीं पास रह कर भी, उन दूरियों का क्या करें !
न बदली हैं न बदलेंगी हवाएं इस जमाने की दोस्त,
जब फैली है दुर्गन्ध इतनी, तो कस्तूरियों का क्या करें !!!