वक़्त संभला, तो दुश्मन भी यार हो गए,
पर ख़ास अपनों के चेहरे, बेज़ार हो गए !
वो दोस्त हुआ करते थे कभी फाकों में,
मगर पेट भरते ही, दौलत के यार हो गए !
न भाता उन्हें तो अब यारों का चेहरा भी,
कभी फूल हुआ करते थे, अब खार हो गए !
अब खो गए वो भी इस मतलबी दुनिया में,
बदवक़्त के साथी भी, अब बदकार हो गए !
कैसे बिकता है ईमान इधर देखा है हमने,
अब तो लोग खुद ही, खुला बाज़ार हो गए !
बन के बरगद जिन्हें छांव दी हमने,
उनकी ही कुल्हाड़ी के, हम शिकार हो गए !