जिस बस्ती में अंधे रहते हों वहां आईनों की जरूरत कोई नहीं
जो लाठी से डगर को पहचाने वहां समझाने की जरूरत कोई नहीं
जो जीते और मरते अपने लिये वहां मुहब्बत की जरूरत कोई नहीं
जो मन का उजियारा ना चाहे वहां उपदेशों की जरूरत कोई नहीं
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जिस बस्ती में अंधे रहते हों वहां आईनों की जरूरत कोई नहीं
जो लाठी से डगर को पहचाने वहां समझाने की जरूरत कोई नहीं
जो जीते और मरते अपने लिये वहां मुहब्बत की जरूरत कोई नहीं
जो मन का उजियारा ना चाहे वहां उपदेशों की जरूरत कोई नहीं