मेरी ज़िंदगी ही अजीब है, और को क्या कोसना
जब ज़ख्म पाये अपनों से, गैरों को क्या कोसना
यादों के ऊंचे ढेर में दब गये अफसाने अपनों के,
मुश्किल से भूल पाये हैं, फिर से उन्हें क्या खोजना
सब को पता होती है अपने चेहरों की हकीकत,
कुछ भी न बदलेगा यारो, फिर आईना क्या पोंछना
वैसे भी क्या कमी है नये ज़ख्मों की आज कल,
जो भर चुके हैं घाव तो, फिर से उन्हें क्या नोचना...
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