अब दिल के ज़ख्म, फिर हरे होने लगे हैं !
हम ग़मों से अब, फिर लवरेज़ होने लगे हैं !
देख कर काली घटाओं का ये सुहाना मौसम,
अब दिल के आँगन में, फसाद होने लगे हैं !
जाग कर गुज़ार दीं जिनके लिए कितनी रातें,
अफ़सोस कि वो, किसी और के होने लगे हैं !
टूटे हुए दिल को अब भला कैसे संभालें दोस्त ,
उसके तो सारे ख़्वाब, अब तमाम होने लगे हैं !

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