दुनिया के दिए ज़ख्मों को, सहना ही पड़ता है,
खा कर के ठोकरें भी, हमें चलना ही पड़ता है !
न देखा है मैंने आज तक कोई भी खुशनसीब,
यारो हर किसी को रंजोग़म, सहना ही पड़ता है !
जब बिगड़ता है वक़्त तो न आती काम ऊंचाई
कभी पर्वतों के शिखर को, ढहना ही पड़ता है !
चाहे खुशियों के रेले हों चाहे ग़म के झमेले हों,
हर हाल में इन अश्कों को, बहना ही पड़ता है !
छुपता नहीं है झूठ कभी खामोशियों में फंस के,
किसी दिन तो सच आखिर, कहना ही पड़ता है !
हम रोज़ देखते हैं इस दुनिया के करिश्में "मिश्र",
पर मन मार के फिर भी, हमें रहना ही पड़ता है !!!

Leave a Comment