अपनी जुबाँ की तासीर को, ज़रा समझ कर देखो
कैसे करती है घाव गहरे ये, ज़रा समझ कर देखो
तलवार का घाव तो, भर जाता है एक दिन,दोस्त
पर ना भरते है ज़ख्म इसके, ज़रा समझ कर देखो
इन आँखों से देखी हैं, कितनी ही तबाहियाँ हमने,
कैसे बिगड़ते हैं ये नाते रिश्ते, ज़रा समझ कर देखो
इस जुबाँ के दम पे ही, बनते हैं दुनिया के काम सारे,
क्यों कर बिगड़ते हैं इसी से, ज़रा समझ कर देखो
ज़रा सा ही चुप, हरा देता है हज़ार बातों को "मिश्र",
फिर बदलती है फिजां कैसे, ज़रा समझ कर देखो