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	जो अपनों का न हुआ, वो भला गैरों का क्या होगा,
	जो जमीं का न हुआ, वो आसमानों का क्या होगा !
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	माथे की सलवटों से, ग़मों को हटाना सीखो !
	खुश रहो खुद भी व, औरों को हँसाना सीखो !
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	वक़्त के गुज़रते ही, बुरे दिन भी टल जाते हैं !,
	मगर कितने ही लोग, दिल से निकल जाते हैं !
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	हम तो अपनों को, अपना संसार समझ बैठे,
	उन्हें 
ज़िन्दगी की नैया का, पतवार समझ बैठे !
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	बिसरी यादों को दिल से, हम निकलने नहीं देंगे,
	सताए कितना भी ये दिल, हम मचलने नहीं देंगे !
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	सुकून मिलता है, जब मुलाक़ात होती है,
	वो 
ज़िन्दगी की, एक हसीन रात होती है !
	चले जाते हैं वो छोड़ कर जब साथ मेरा,
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	चोर (बन्दूक तानते हुए): 
ज़िन्दगी चाहते हो
	तो अपना पर्स मेरे हवाले कर दो।
	आदमी: यह लो।
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	अपनी तो 
ज़िन्दगी का, बस फ़साना बन चुका है,
	था दिल के क़रीब जो भी, वो बेगाना बन चुका है !
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	हद से ज्यादा खुशी और
	हद से ज्यादा गम किसी को मत बताओ ॥
	जिन्दगी में लोग हद से ज्यादा  खुशी पर “नजर”
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	पूछूँगा विधाता से मैं, कि ये कैसा मुकद्दर बना दिया,
	न बचा था ठौर कोई, जो आँखों को समंदर बना दिया !
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