आधी उम्र तो, ख्वाहिशों के नाम हो गयी
जो बची थी वो, नफरतों के नाम हो गयी
मोहब्बतों के लिये वक़्त ही न बचा अब,
देखते ही देखते, ये ज़िंदगी तमाम हो गयी
जीते रहे सिर्फ शोहरतों के लिये हम, मगर,
फरेबी दुनिया में, ज़िंदगी बदनाम हो गयी
वक़्त सरक गया हाथों से रेत की तरह "मिश्र",
होश आया जब तक, ज़िंदगी की शाम हो गयी
मत लपेटो कफ़न से चेहरा, आँखें खुली रखने की आदत है
देखता हूँ आ जायें वो शायद, या अब भी कोई अदावत है
क्यों उतावले हो मुझे कंधों पै लादने के लिये "मिश्र",
कुछ देर और ठहर जाते, देर से आने की उनकी आदत है
मोहब्बत के नाम से डर गया हूँ मैं
अपनी ही नज़रों में गिर गया हूँ मैं
बेवफाई का जिक्र क्या करना "मिश्र"
हसीनों के मेले से गुज़र गया हूँ मैं
न वो दिल रहा न प्यार का जुनून
अब ठोकरें खाकर सुधर गया हूँ मैं
न आँसूं न ग़म न लटका हुआ चेहरा
इश्क़ की आफतों से उबर गया हूं मैं...
ये ज़िंदगी के खेल भी कित्ने अजीब होते हैं
सच्चाई की राह में हमेशा काँटे नसीब होते हैं
नहीं चाहता कोई अपनों से दूर होना “मिश्र”
पर देते हैं वही धोखे जो दिल के करीब होते हैं
आजकल अजीब सी बेकली से गुज़र रहा हूँ मैं
जो कभी मुंह लगाई थी उसको उगल रहा हूँ मैं
मैंने उसे अपने दिल के हमेशा करीब रखा,
पर वर्षों की पुरानी दोस्ती अब दफना रहा हूँ मैं
जाते जाते भी अपना असर दिखा रही है वो,
तड़प बहुत होती है मगर हिम्मत दिखा रहा हूँ मैं
आज कुछ दिन ही तो गुजरे हैं उसके बिना,
बीमार नहीं हूँ फिर भी बीमार सा लग रहा हूँ मैं
दुआ करो कि फिर न आये याद उसकी मुझे,
उसकी याद मिटाने को हर कदम उठा रहा हूँ मैं...