यारो आदमी को गुरूर में, जमीं नहीं दिखती !
किसी भी और की आँखों में, नमी नहीं दिखती !
औरों में तो दिखती हैं कमियां हज़ार उसको,
मगर उसे खुद के वजूद में, कमी नहीं दिखती !
रहता है अपनी खुशियों के जश्न में ग़ाफ़िल वो,
उसको तो किसी के दिल में, ग़मी नहीं दिखती !
दिखती हैं बुराइयां उसको तो सच्ची बातों में भी,
मगर अपनी जुबां के तीरों में, अनी नहीं दिखती !
पढ़ाते हैं "मिश्र" औरों को सदा ही पाठ नरमी का,
पर खुद को अपने मिज़ाज़ में, गरमी नहीं दिखती !