हर कोई हर किसी में, कसूर ढूंढता है।
न मिलता है गर पास, तो दूर ढूंढता है।

न झांकता है इंसान अपने दिल में यारो,
मगर खामियाँ दूसरों में, ज़रूर ढूंढता है।

छुपा लेता है ये आदमी ज़ख्म अपने तो,
पर नोचने को औरों के, नासूर ढूंढता है।

छुप गयी है ज़िंदगी आफतों की धूल में,
दिल फिर भी ज़र्द चेहरों में, नूर ढूंढता है।

न समझ पाए आदमी की तलब को,
न देखता शक्ल अपनी, पर हूर ढूंढता है।

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