आरज़ू थी मेरे दिल की, कि कोई न मुझसे रूठे !
इस ज़िन्दगी में अपनों का, कभी न साथ छूटे!
करता रहा उम्र भर कोशिशें कुछ इस कदर मैं,
कि रिश्तों की मुलायम डोर, न ज़िन्दगी भर टूटे !
मगर अफसोस न समझा कोई मेरे दर्द को यारो,
गफ़लत की उड़ान में, न जाने कितनों के पर टूटे!
कानों में उड़ेले ज़हर ने ऐसा गुल खिलाया,
कि न जाने कितनों के घर टूटे कितनों के सर फूटे!

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