अपना तो नाम मुफ़्त में,बदनाम हो गया !
बे-सबब ही हसीनों का, अहसान हो गया !
उनकी ज़फाओं से दिल टूट तो टूटा यारो,
मगर मोहब्बत का चस्का, तमाम हो गया !
मंज़िल की तलाश में निकला था मैं नादाँ,
मगर यारों का तज़ुर्बा भी, नाकाम हो गया!
अँधेरी सुरंगों में कुछ इस कदर भटका मैं,
कि अपनों का साया भी, अनजान हो गया !
अपने दर्दों को कब तक मैं छिपाऊँ "मिश्र",
मेरे ज़ख्मों का चर्चा तो अब, आम हो गया !!!