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घर बैठे
कभी फूल, मुस्कराने नहीं आते,
बिन ख़ुशी, मोहब्बत के तराने नहीं आते !
नफ़रत को उजड़ा हुआ आशियाँ समझो,
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कभी क़ातिल रिहा,
कभी मासूम लटक जाता है,
फरेबों के सहरा में, बेचारा सच भटक जाता है !
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गिर के फिर संभलने का, मज़ा ही कुछ और है ,
अपने पैरों से चलने का, मज़ा ही कुछ और है !
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कभी न
कभी तो, ये वक़्त भी आना ही था,
जो आया था उसे तो, एक दिन जाना ही था !
क्यों लगा बैठे थे तुम एक मुसाफिर से दिल,
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जिसने सिखाया प्यार करना,
आज सिखा रहा है दूर रहना...
कभी खामोशी पर खफा होता था,
आज खुद खामोश रहकर हमें
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छोटी सी जिंदगी है,
हर बात में खुश रहो।
जो पास में ना हो,
उनकी आवाज़ में खुश रहो।
कोई रूठा हो तुमसे,
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न करनी है तुम्हें मदद, तो खुलेआम मत करिये,
मगर किसी की इज़्ज़त का, क़त्लेआम मत करिये !
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तुम्हीं पे मरता है ये दिल, अदावत क्यों नहीं करता,,,
कई जन्मों से बंदी है, बगावत क्यों नहीं करता...
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किसी को अपनों में, खुशहालियाँ नज़र नहीं आतीं,
तो किसी को गैरों की, बदहालियाँ नज़र नहीं आतीं !
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आदमी से क्या क्या, न करा देता है ख़ुदा,
इंसान को खुला बाज़ार, बना देता है ख़ुदा !
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