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दौर ए गर्दिश का असर, कब तक रहेगा
यूं ही उलझनों का सफर, कब तक रहेगा
कभी तो टूटेगा आदमी का हौसला यारो,
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न जाने कितनों को, बदलते देखा है हमने
कितने रिश्तों को, बिखरते देखा है हमने
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न हिन्दू होते न हम मुसलमान होते
काश हम एक अच्छे से इंसान होते
न आतीं गोलियों की बौछारें कहीं से
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चलिए मगर, यूं फासले, मत बनाइये
फ़क़त अपने लिए रस्ते, मत बनाइये
हैं और भी मुसाफिर तेरी राहों के यारा
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ज़ालिम
नफरतों ने जीना, मुहाल कर दिया
गुलशन सी ज़िन्दगी को, बदहाल कर दिया
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सब कुछ तो लुट गया, बस ईमान रह गया
बदनाम हो कर भी, थोड़ा सा नाम रह गया
लोगों की ढपलियों पे बजते रहे राग उनके,
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बेकार अपने वक़्त को, गंवाया मत करिये
हर जगह अपनी टांग, फंसाया मत करिये
कोई भी किसी से कम नहीं है आज कल,
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क्यों लिखते हो अय दोस्त, ये तराने मोहब्बतों के ,
जब कि दिखते हैं हर तरफ, अब साये नफ़रतों के !
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किसी की मजबूरियों पर, हंसा मत करिये
यूं बेसबब झूठे गरूर का, नशा मत करिये
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