निकल पड़ते हैं जज़्बात, क्या करें
दिल में अटकी है हर बात, क्या करें

उमड़ता रहता है दर्दे दिल अंदर ही,
अब न करता है कोई बात, क्या करें

अपने ही मसलों में मशगूल हैं सब,
अब न बढ़ाता है कोई हाथ, क्या करें

चाहत है हमसफ़र की हमें भी यारो,
मगर न आता है कोई साथ, क्या करें

न मिलता शरीफजादा कोई भी हमें,
जिगर में भरी है ख़ुराफ़ात, क्या करें

लगा दी उम्र हमने सुबह की आस में,
पर न गुज़री वो काली रात, क्या करें

कैसा नसीब पाया है हमने भी 'मिश्र',
न संभलती है बिगड़ी बात, क्या करें

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