Shanti Swaroop Mishra

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Tarane Mohabbaton Ke

क्यों लिखते हो अय दोस्त, ये तराने मोहब्बतों के ,
जब कि दिखते हैं हर तरफ, अब साये नफ़रतों के !

तेरे अहसासे दिल को, भला कोंन समझेगा दोस्त,
जब कि यहाँ उठते हैं रोज़ अब, जनाज़े हसरतों के !

अब भूल जाओ यारो, वो खुशियों वो उमंगों के दिन,
अब तो दिखते हैं हर कदम पर, नज़ारे वहशतों के !

अब न कोई भी महफूज़ है, इस दुनिया के मेले में,
अब तो घुस चुके हैं हर दिल में, अंगारे दहसतों के !

न होइए मायूस यूं, ये तो दुनिया का चलन है 'मिश्र',
यूं ही मिलते रहेंगे हर तरफ, ये फ़साने हरकतों के !

Kasoor Dhoondhta Hai

हर कोई हर किसी में, कसूर ढूंढता है।
न मिलता है गर पास, तो दूर ढूंढता है।

न झांकता है इंसान अपने दिल में यारो,
मगर खामियाँ दूसरों में, ज़रूर ढूंढता है।

छुपा लेता है ये आदमी ज़ख्म अपने तो,
पर नोचने को औरों के, नासूर ढूंढता है।

छुप गयी है ज़िंदगी आफतों की धूल में,
दिल फिर भी ज़र्द चेहरों में, नूर ढूंढता है।

न समझ पाए आदमी की तलब को,
न देखता शक्ल अपनी, पर हूर ढूंढता है।

Teri Yaadon ko kab tak

तेरी यादों का ज़खीरा, कब तक दबाये रखूँ
दिल में वो तेरी सूरत, कब तक बसाये रखूँ
कभी जलाई थी जो तूने मोहब्बत की शमा,
उसको मैं आखिर यूं, कब तक जलाये रखूँ
तुझे देखना है तो देख ले यहाँ आकर यारा,
मैं उल्फत का मलबा, कब तक बचाये रखूँ
सच है कि होती है तेरी कमी महसूस मुझे,
पर यूँही झूठी तसल्ली, कब तक बँधाये रखूँ
तूने तो तमाशा बना दिया मेरी ज़िन्दगी का,
मैं तेरी डगर पे पलकें, कब तक बिछाए रखूँ
गुज़रे हुए लम्हें कभी वापस न आते "मिश्र",
आखिर मैं तेरी दास्ताँ, कब तक छुपाये रखूँ...

Waqt ganvaya mat kariye

बेकार अपने वक़्त को, गंवाया मत करिये
हर जगह अपनी टांग, फंसाया मत करिये
कोई भी किसी से कम नहीं है आज कल,
बेसबब किसी पे धौंस, जमाया मत करिये
ख़ुराफ़ातों से न मिला है न मिलेगा कुछ भी,
यूं हर वक़्त टेढ़ी चाल, दिखाया मत करिये
ये ज़िन्दगी है यारो इसे मोहब्बत से जीयो,
इसमें नफ़रतों का पानी, चढ़ाया मत करिये
गर उलझन है अपनों से तो सुलझाइये खुद,
मगर शोर घर से बाहर, मचाया मत करिये
अब तो न बचा है कोई भी भरोसे के लायक,
किसी को दिल की बात, बताया मत करिये
ज़िन्दगी का मसला कोई खेल नहीं है ‘मिश्र’,
कभी बेवजह इसको, उलझाया मत करिये...
 

Marna Bhi Aa Gya

जीना भी आ गया, हमें मरना भी आ गया.
लोगों की नज़र को, हमें पढ़ना भी आ गया .
यूं ही तो नहीं गुज़ारी है ये ज़िन्दगी हमने,
दिलों की धड़कनें, हमें परखना भी आ गया !

मुखौटों की आड़ में बहुत लुट चुके हैं हम,
भोली सूरतों को, हमें समझना भी आ गया !
हँसते थे हम भी औरों की मुश्किलें देख कर ,
मगर अब तो खुद पे, हमें हँसना भी आ गया !

सर झुकाये रहे तो लोग ठगते रहे जी भर के,
अब तो सर उठा के, हमें चलना भी आ गया !
बड़ी ही टेढ़ी चाल है ज़ालिम ज़माने की "मिश्र",
पर कदम पर कदम, हमें रखना भी आ गया !


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