कोयले के टुकड़े, जमा करते रहे हीरा समझ कर
अपनों को सम्हाले रहे, नायाब नगीना समझ कर
अफसोस कोई भी खरा न उतरा अपनी कसौटी पर,
बस भूल कर बैठे हम, पानी को पसीना समझ कर
दुनिया बड़ी अजीब है किसी पर भरोसा क्या करिये,
आंसू न दिखाइये अपने, किसी को अपना समझ कर
जब तक ज़रूरत नहीं हर शख्स नज़र आता है दोस्त,
पर वक़्त आने पर, खिसक जाते हैं अंजाना समझ कर
बस यही है चलन इस अनौखी सी दुनिया का "मिश्र",
डुबाता है वही नैया, जिसे पतवार दी अपना समझ कर..

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