तूने ऐ ख़ुदा, ये अजीब दुनिया क्यों बनाई, #मोहब्बत बनाई, तो फिर नफ़रत क्यों बनाई !
जब तेरी ही तासीर है हर इंसान में ऐ रब,
तो फिर #दोस्ती बना के, दुश्मनी क्यों बनाई !
सुना है कि तू ही लिखता है मुकद्दर सभी के,
बस इतना बता दे कि, बदनसीबी क्यों बनाई !
जब तेरी ही औलाद है दुनिया का हर #इंसान,
तो फिर तूने, अमीरी और गरीबी क्यों बनाई !
जब तू ही समाया है हर तरफ हर ज़र्रे में रब,
फिर हर चीज़ तूने, अपनी परायी क्यों बनाई !
क्या मज़ा आता है तुझे दुनिया के इस खेल में,
बेइज़्ज़ती बनानी थी, फिर इज़्ज़त क्यों बनाई !
जब मौत ही है आखिरी मंज़िल हम सभी की,
तो फिर भटकने को तूने, ज़िन्दगी क्यों बनाई !
झूठी दिलासा से, गम कभी कम नहीं होते,
बाद मरने के भी, ये झंझट कम नहीं होते !
ज़रा रखिये खोल कर अपनी आँखे ज़नाब,
दुश्मनी करने में, अपने भी कम नहीं होते !
लफ़्ज़ों का कितना ही मरहम लगाए कोई,
पर दिल पे लगे ज़ख्म, कभी कम नहीं होते !
चरागों के बुझाने से भला क्या होगा दोस्त,
अंधेरों में छुप जाने से, गुनाह कम नहीं होते !
भले ही सारी ज़ागीर दे दो किसी को दोस्त,
मगर तब भी अरमान उसके, कम नहीं होते !
दर्द ए दिल मैं अपना, बताऊँ किस तरह,
मैं तराना ज़िंदगी का, सुनाऊँ किस तरह !
हो चुकी है जुबां बंद मेरी सदमों से यारो,
अफ़साने #ज़िंदगी के, मैं बताऊँ किस तरह !
देखना है तो देख लो आँखों में झांक कर,
अब दिल में मेरे क्या है, बताऊँ किस तरह !
ताउम्र मैं सहता रहा दुनिया के रंजो ग़म,
अब तक हूँ हाथ खाली, जताऊं किस तरह !
बहुत कांटे हैं अब भी इस #सफर में दोस्तो,
थक गया हूँ इतना, उन्हें हटाऊँ किस तरह ???
यारो हम तो सपने ही, बस बुनते रह गए ,
बस व्यर्थ की बातों में, सर धुनते रह गए !
लोग तो आसमाँ तक भी घूम आये मगर,
हम तो सिर्फ आसमाँ को, तकते रह गए ! #दोस्तों ने कर लीं पार जाने मंज़िलें कितनी,
मगर हम तो सिर्फ सोच में, घुलते रह गए ! #समंदर में उतर कर पा लिए लोगों ने रत्न,
और हम किनारे पे खड़े, हाथ मलते रह गए !
पस्त इस कदर हो गए हमारे हौसले दोस्तो,
कि ज़िन्दगी के खेल में, हम उलझते रह गए !!!
अमृत बता कर लोगों को, वो ज़हर बेच सकता है ,
अपनी जागीर बता कर, वो समंदर बेच सकता है !
उसकी नसों में खून बहता है मक्कारियां बन कर,
वो अपना ही बता कर, औरों का घर बेच सकता है !
न जाने क्या हुआ है इंसान के ईमान को दोस्तो,
कि अपने नाम से किसी का, वो हुनर बेच सकता है !
ज़माने में कोई तो गिर चुका है इतना दोस्तो, कि
ज़रा से ऐश की खातिर, वो हमसफ़र बेच सकता है !
रोग ए हवस ने अब घेर रखा है आदमी को दोस्त ,
ज़रा से नफ़े के लिए, अपनों का सर बेच सकता है !